हिज़ड़ा!
ज़िन्दगी की एक अद्भुत उत्पति का परिणाम हूँ मैं!
कोख, एक मेरी माँ की, पर उसके जीवन में अभिशाप हूँ मैं!
न बेटी, न बेटा,
किन्नरों की पहचान हूँ मैं!
ताली बजाता चौराहों पर, नव- जन्मतें बच्चों के घर, मेहमान हूँ मैं!
अपनी पैदाईश पर शर्मिंदा होते देख, सबकी नज़रो को, मैं अचंभित और कहीं न कहीं परेशान हूँ।
एक ही डाली में खिलता फूल था, फिर भी उसके लिए बेकार हूँ मैं!
माँ की ममता भी जैसे खो जाती है!
जब किन्नरों की टोली, मुझे अपने संग ले जाती है!
छोटा- सा बचपन गालियों
और तालियों के बीच बढ़ जाता है!
मेरा नन्हा- सा बचपन,
न जाने कितनी देहलीजें चढ़ जाता है!
वो दहलीजें, जहाँ हम तमाशाई बनकर,सबका मन बहलाते है!
चंद पैसो के लिए, अपना हर अंग, खुले बाजार के तरह दिखलाते है!
किसी के घर नव- जीवन पैदा हो,
तो हम झूम- झूम कर गाते है!
पर सच कहे, तो उन लोगो को हम बिलकुल नहीं भाते है!
दर्द हमे भी होता है, जब कोई हमारे वजूद पर उंगली उठाता है!
हमारा भी अस्तित्व है अपना, ये क्यों कोई समझ नहीं पाता है!
न हम बेटी, न हम बेटा, फिर भी
हमारी इज़्ज़त को उतारा जाता है!
इस गन्दी नासमझ लोगों की
बस्ती में, हमे भी चरित्रहीन बताया जाता है!
लोग क्यों कतरा कर, हमारे चारो तरफ से निकलते है!
जैसे हम हर इंसान को, अपवित्र
करने का सामान रखते है!
हमे मंदिर जाने का अधिकार नहीं, हमे जीवन-साथी की आस नहीं!
एक झुंड बनाकर के हमारा,हमारे आशियाने को, बाजार बताया जाता है!
जब मौत हमारी होती है, सब हसते है, सब गाते है!
ताली बजा- बजा के,
हमारे मरने का जश्न मनाते है!
अलग जन्म हमारा भी इंसान का हो, रब से गुहार लगायी जाती है!
किनरों की बस्ती से, जब लाश
हमारी उठायी जाती है!
भेडियों से भरा है जंगल,
इस दुनिया की भीड़ में!
नोच- नोच कर ये हर मज़बूर की,
मांस क्या, चमड़ी तक खा जाते है!
सोचते है,
तो कितना घिनौना ये संसार है!
दुआ करते है, हर घर बेटी या बेटा ही पैदा हो!
क्युँकि किन्नर होना,
एक बहुत बड़ा अभिशाप है!
बेशक अब नए युग में,
हमे सम्मान से देखा जाता है!
पर एक परिवार की चाह में,
जीवन अधूरा ही रह जाता है!
- रेखा रुद्राक्षी