बही-खाता!
मैं खुद अपनी ज़िन्दगी की, किताब लिख रही हूँ!
हर बात, हर दर्द, हर गुनाह का ,हिसाब लिख रही हूँ!
कुछ छूट न जायें मुझसे ,इसलिए पन्नें बेहिसाब लिख रही हूँ!
मैं खुद अपनी ज़िन्दगी की, किताब लिख रही हूँ!
गुम हुई ख़ुशी कब, खाली हुआ दामन कब?
उस पल, उस लम्हें का, हिसाब लिख रही हूँ!
मैं खुद अपनी ज़िन्दगी की, किताब लिख रही हूँ!
कल मिला क्या था, आज छूटा क्या है?
मेरी उदासी की ये वजह क्या है?
पुरानी ज़िन्दगी के बही -खातें का, नया हिसाब लिख रही हूँ!
मैं खुद अपनी ज़िन्दगी की, किताब लिख रही हूँ!
किसका दिल दुखाया, किसकों कब गले लगाया!
किसकी मजबूरियों को समझा,
किसका साथ निभाया!
ऐसे लम्हातों का बही-खाता,
लाजवाब लिख रही हूँ!
मैं खुद अपनी ज़िन्दगी की, किताब लिख रही हूँ!
सोचती हूँ शायद, कुछ तो मुझमें बदलाव आएगा!
जो ज़िन्दगी को संवार दें, वो पन्ना खोया हुआ
मिल जायेगा!
इसलिए सोच -समझकर,
हर बीती बात को लिख रही हूँ!
मैं खुद अपनी ज़िन्दगी की, किताब लिख रही हूँ!
कुछ मिलें, न मिले, पर क्यों अधूरा मेरा ख्वाब?
इसकी वजह क्या थी, ये राज़ खुल जायेगा!
बीती बातों के राज़ खुल जाने से,
शायद मेरा आज संवर जायेगा!
इसलिए, मैं खुद अपनी ज़िन्दगी की, किताब
लिख रही हूँ!
हर बात, हर दर्द, हर गुनाह का, हिसाब लिख रही हूँ!
- रेखा रुद्राक्षी।