सोमवार, 18 मई 2020

ज़िन्दगी की फड़फड़ाती उड़ान!(कविता -संग्रह -"फड़फड़ाती उड़ान !"/कवियत्री -रेखा रुद्राक्षी !),

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ज़िन्दगी की फड़फड़ाती उड़ान!

 काम-वासना में डूबे, दो जिस्मों का मिलन!
वैवाहिक- जीवन का, वो अद्भुत संगम!
मिलन, जिसमें मेरा जीवन  , अस्तित्व में आया !
माँ के गर्भ में, जो नव-जीवन था लाया! 
बढ़ती रही धीरे-धीरे,अपने जीवन- चरण की और!
तड़पती रही, झटपटाती रही, फड़फड़ाती रही,
की जन्मु और उड़ जाऊँ आसमान की ओर!
देखूँ फिर, ये अद्भुत दुनिया का मेला!
जहा दुनिया की भीड़ में भी, 
हर इंसान था अकेला!
गर्भ में ही रहकर, कई बार कई बाते को झेलती थी मैं!
बेटी पैदा न हो जाए, सबके स्वरों की गूंज को 
सुनती थी मैं!
हां, माँ के गर्भ में कई बार खेलती थी मैं!
पर माँ के दर्द, तकलीफों को भी समझ सकती थी मैं!
नौ महीने का संघर्ष ओर दर्द भी असहनीय!
झटपटाती, फड़फड़ाती रहती माँ, 
पर माँ खुश होती थी!
जब उसके गर्भ में खेलती थी मैं!
जन्म लिया, मैं इस युग में आयी!
उदास चेहरों की आँखों में, नमी थी छाई!
क्या हुआ, क्या हुआ, का शोर बहुत था!
लड़की पैदा हुई, माँ के सिवा ये अफसोस सबको बहुत था!
बचपन से ही जैसे जीवन, संघर्ष बन चुका था!
मैं जन्मी क्यों हूँ, ये सवाल मेरे दिल में, 
घर कर चुका था!
दिल की वेदना, तड़पती रही, झटपटाती रही!
मेरी आशाएं, मेरी उमीदे ,
मेरे अंतर्मन में फड़फड़ाती रही!
समाज के दोगलेपन से, मैं हमेशा घबराती रही!
बेटा, बेटी में अंतर था, 
जमीन- आसमान का, ऐसा क्यों?
माँ की एक कोख से जन्मे थे, 
इस सवाल के जवाब के लिए!
मैं हमेशा तड़पड़ाती और फड़फड़ाती रही!
बीत रहा था मेरा बचपन, 
अल्हड और मतवाला- सा !
बेटी घर से बाहर न निकले, 
बेटा घर का रखवाला था!
चार दीवारी घर है तेरा, मुझे समझाया जाता था!
बेटी है, बेटा ना बन, अपनों से ज्यादा रिश्तेदारों के बीच, मुझे ये पाठ पढ़ाया जाता था!
भरपूर था मुझमे हूनर, कुछ कर दिखलाने का!
माता- पिता के सर को, गर्व से ऊँचा उठाने का!
माँ ने समझा, पिता ने समझा, 
समझा रिस्तेदारो ने!
पर बेटी हूँ, इसलिए आगे बढ़ने ना दिया, 
समाज के ठेकेदारों ने!

२.    छोटी- सी उम्र में ही भेदभाव को समझ चुकी थी!
अपनी तमन्नाओं, ख्वाईशों को मिटता हुआ, 
मैं देख चुकी थी!
सच में दिल के अंदर, एक युद्ध अपने आप से 
चल रहा था!
कब कैसे बदलेगा, ये भेदभाव, बेटा, बेटी के अंतर का!
ये सवाल मेरा दिल, मुझसे हर बार कर रहा था!
पढ़ी चार किताबे मैंने भी, झाँसी की रानी 
और इंदिरा गाँधी की!
एक ने अपना राज्य बचाया, एक ने अपना देश चलाया!
वो भी तो बेटियाँ महान थी, 
हमारे देश की शान थी!
न शरीर रहा, न उसका साथ रहा!
पर आज भी उन बेटियों का नाम,
 इतिहास को याद रहा!
फिर क्यों, मेरे बढ़ते कदमो को रोका जाता है?
क्यों, मुझे पैदा होने से पहले ही, 
मार दिया जाता है?
हां, मैं लड़की हूँ, पर मेरा अपना वजूद है!
जिस कोख से बेटा जन्मे, वो मेरी   माँ ही तो कोख है!
यु हीं तुम स्त्री -जाति को मिटाते जाओगे?
तो ए पुरुष जात, 
किसके गर्भ से अपना वंश चलाओगे?
नारी ग्रहणी, नारी माता,नारी बहन,नारी घर का आधार है!
नारी तेरा नवजीवन, 
फिर नारी कहा से अभिशाप है?
बेटा, बेटी में अंतर था, 
इसलिए टूटते मेरे ख्वाब रहे! 
अब बहू बनी, तो बेटी- बहु में अंतर मिलते नए, 
हमेशा दिल को घाव रहे!
पहले समाज और उनकी रीतियों से 
सतायी गयी!
फिर बहू बनी, 
तो वहा भी मेरी ख्वाइशें जलाई गयी!
सोचा, माँ के घर से बाहर निकलूंगी, बहू बनकर अपनी नई दुनिया बसाउंगी!
बेटी बनकर, जो न कर पायी, बहू बनकर अपने जीवन साथी से, अपने सपने पूरे करवाउंगी!
सपना ये नहीं की, दौलत- शोहरत हो, ज़ेवरों की दुकान हो!
बस, इस काबिल बन जाऊ, की औरों को ही नहीं, मुझे खुद पर भी अभिमान हो!
नित नए सपने संजोती जाती थी, हर एक 
ख्वाइश को बच्चों की तरह समझाती थी!
उड़ान भरूंगी, एक दिन मैं भी, पंछियो को पंख फैला उड़ते देख,आँखे नम मेरी हो जाती थी!
धीरे- धीरे समझ आ गया, मैं तो औरत जात हूँ!
बेटी बनकर, बेटा न बनी, बहू बनकर घर का 
काम किया!
चार दीवारी ने हरदम घेरा, मुझको किसने कब 
मेरा सम्मान किया!
बेटी चरित्रहीन न बन जाए, इसलिए मेरे वजूद को चार दीवारी के अंदर सीमित 
बताया जाता था!
बहू बनकर घर से बाहर न निकलू, इसे लाज शर्म और हया का गहना बताया जाता था!
ऐसा लगा मानो,पुराने पिंजरे से नए पिंजरे को बदल दिया!             
न ख्वाइशे पूरी हुइ, न ख्वाब पूरे हुए!
बेटी से बहू बनी, इन रीतियों ने तो मेरे वजूद का अस्तित्व ही बदल दिया!
क्या है मेरा ,क्या था मेरा, क्या होगा ,
कभी कुछ मेरा?
इसी सवाल में उलझी रहती थी!
बेटी, बहन, पत्नी, माँ के रूप में ,
औरत जीती रहती थी!
जंग खुद से हो गयी जारी थी!
बंद पिंजरे को तोड़ कर, उड़ जाने की तैयारी थी!
अब कोई डर, मुझे झुका नहीं सकता था! 
मेरे अंदर भी जाग चुकी, 
एक शक्तिशाली नारी थी!
कदम बढ़ाया, जब भी मैंने संघर्षो से नहीं हारी थी !
हां, मैं नारी जाती हूँ, 
अब मैं भी परिवार को प्यारी थी!
फड़फड़ाती रहती जिस पिंजरे में, 
अपनी पहचान छोड़ कर,
अब उड़ने लगी थी आसमान में, 
बंद पिंजरे को तोड़ कर!
हां, मुझे भी अब लड़को से कम नहीं 
बताया जाता है!
मुझे भी अब मेरे परिवार का गर्व बताया जाता है!
मैं भी अब अपनी एक अलग पहचान रखती हूँ !
औरत हूँ, पर अपने हक़ के लिए, 
अब लड़ सकती हूँ!
मैं भी अपने परिवार की रक्षा और भरण- पोषण कर सकती हूँ!
पर फिर भी एक सवाल ज़हन में बार- बार आता है!
औरत को आज़ादी कब मिलेगी, जिन्हे आज भी घर के अंदर सताया जाता है!
इसका अंत यही अब लगता है मुझको!
औरत को औरत का साथ देना चाहिए!
जहा समाज के नाम पर, 
उसकी ख्वाईशो को दबाया जाता है!
नारी सर्वगुण संपन्न है, फिर भी उसे वंश के लिए, अभिशाप बताया जाता है!

 - रेखा रुद्राक्षी।

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